यात्रा के दौरान जब मैं मध्य प्रदेश के गढ़कुंडार गाँव पहुँचा, तो वहाँ की शांत फिज़ाओं और ऐतिहासिक स्थलों ने मुझे अपनी ओर खींच लिया। घूमते-फिरते मैं एक प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर – माता गिधवाहनी के स्थान पर पहुँचा। यह मंदिर अपनी भव्यता और विशालता के लिए जाना जाता है। चारों ओर फैली पहाड़ियाँ, विशाल तालाब और प्राकृतिक सौंदर्य इसे और भी खास बनाते हैं।
मंदिर के आसपास कुछ मिट्टी और ईंटों से बने छोटे-छोटे घर थे, जिनमें गाँव के लोग रहते थे। इन्हीं में से एक घर ने मेरा ध्यान खींचा। मैं धीरे-धीरे अपने कैमरे के साथ उस घर के पास पहुँचा, मेरी इच्छा थी कि वहाँ की संस्कृति, संस्कार और ग्रामीण जीवन के कुछ अनमोल दृश्य कैद कर सकूँ।
घर के बाहर एक महिला मिट्टी के दो मुँह वाले चूल्हे पर खाना बना रही थी। वह मिट्टी के तवे पर रोटियाँ सेंक रही थी। उसका आधा चेहरा घूँघट में ढका हुआ था। पास ही उसका छोटा बच्चा खेल रहा था, माँ की ममता में खोया हुआ, कभी उसकी गोद में लिपटता तो कभी मिट्टी में खेलता।
थोड़ी दूरी पर एक बुज़ुर्ग व्यक्ति भोजन कर रहे थे, उनके पास एक बच्चा बैठा था, शायद वह महिला का बड़ा बच्चा था। पहली नज़र में ही समझ आ गया कि बुजुर्ग उस घर के मुखिया थे, और महिला इस घर की बहू। लेकिन वहाँ कोई और पुरुष नहीं था, जिससे ये साफ़ था कि महिला का पति वहाँ मौजूद नहीं था।
मैंने थोड़ा संकोच महसूस करते हुए अपने कैमरे से फोटो लेने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही महिला ने देखा, उसने अपना घूँघट और नीचे कर लिया। मैं असमंजस में पड़ गया कि आगे क्या करूँ, तभी पास बैठे बुज़ुर्ग व्यक्ति ने बड़े प्रेम से कहा – "साहब, रोटी खा लो।"
उनकी यह बात सुनकर मैं थोड़ा सहज हुआ और मुस्कुराते हुए कुछ तस्वीरें खींच लीं।
इस छोटे-से अनुभव ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। पर्दा प्रथा को लेकर मेरे विचार पहले से ही स्पष्ट थे, लेकिन वहाँ जाकर महसूस हुआ कि यह सिर्फ एक सांस्कृतिक परंपरा नहीं, बल्कि संकोच और मर्यादा का प्रतीक भी था।
सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि उन चार लोगों ने मुझसे यह नहीं पूछा कि मैं कौन हूँ, मेरी तस्वीरें कहाँ जाएँगी, या उन्हें कहाँ पोस्ट किया जाएगा। शायद उनके लिए यह बहुत सामान्य बात थी या फिर उन्हें बाहरी दुनिया की परवाह ही नहीं थी।
इस पूरे अनुभव के दौरान हमारे बीच सिर्फ एक ही संवाद हुआ – "बेटा, रोटी खा लो।"
लेकिन इस एक वाक्य में गाँव की सादगी, अपनापन और प्यार छिपा था। मैंने महसूस किया कि गांव सिर्फ मिट्टी के घरों से नहीं, बल्कि लोगों की मधुरता और सरलता से बनता है।
गढ़कुंडार की इस यात्रा ने मुझे एक बार फिर याद दिला दिया कि असली ख़ुशी शहरी चमक-धमक में नहीं, बल्कि गांव की सादगी और अपनत्व में बसी होती है।